• विनोद जी का जादुई लेखन

    अमेरिका में साहित्य का ऑस्कर माने जाने वाले पेन/नेबाकोव अवार्ड से हिंदी के अप्रतिम कवि-लेखक विनोद कुमार शुक्ल को सम्मानित किया जा रहा है। यह हिंदी साहित्य जगत के लिए बेहद गौरवान्वित करने वाला अवसर है।

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    अमेरिका में साहित्य का ऑस्कर माने जाने वाले पेन/नेबाकोव अवार्ड से हिंदी के अप्रतिम कवि-लेखक विनोद कुमार शुक्ल को सम्मानित किया जा रहा है। यह हिंदी साहित्य जगत के लिए बेहद गौरवान्वित करने वाला अवसर है। पिछले साल गीतांजलि श्री के उपन्यास रेत समाधि को बुकर पुरस्कार मिलने के बाद अब फिर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक और बड़े सम्मान से हिंदी साहित्यकार को नवाजा जा रहा है। पेन/नेबाकोव पुरस्कार अंतरराष्ट्रीय साहित्य में पहचान बनाने वाले उन साहित्यकारों को दिया जाता है, जो अपनी परंपराओं, आधुनिकता, वर्तमान और इतिहास को नयी अंतरदृष्टि से देखते हैं। वास्तव में किसी भी लेखक की सफलता इसी बात में है कि उसकी अंतरदृष्टि पाठकों में भी नया नजरिया विकसित कर सके या कम से कम उन्हें चीजों को देखने-समझने की समझ विकसित कर सके। इस लिहाज से विनोदजी वाकई एक सफल लेखक हैं।

    विनोद जी का सारा साहित्य यानी उनकी कविताएं और उपन्यास, कहानियां सब आम आदमी के धूसर, रंग-गंध रहित जीवन को धूप-छांव की तरह पेश करती हैं। भारतीय मध्यवर्ग के मनुष्य का महाकाव्य उनके गद्य और पद्य दोनों में नजर आता है। प्रेमचंद, मुक्तिबोध, परसाई जी की तरह ही विनोद कुमार शुक्ल के लेखन में भारतीय मध्य वर्ग की विडंबनाओं और जटिलताओं का सरल भाषा में सहज वर्णन है। यह सहजता सीधे जीवन अनुभव से आती है। इस महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय सम्मान के लिए उनका चयन करते हुए ज्यूरी ने भी लिखा है कि विनोद कुमार शुक्ल का गद्य और कविता एक सटीक और दुर्लभ अवलोकन है। उनकी कविताओं का स्वर गहरी मेधा से परिपूर्ण और स्वप्निल आश्चर्यों से भरा हुआ है। भारत के लिए यह खुशी का पल है, क्योंकि विनोद जी पहले भारतीय एशियाई मूल के लेखक हैं, जिन्हें इस सर्वोच्च सम्मान से सम्मानित किया जा रहा है। और छत्तीसगढ़ इसलिए गौरवान्वित है क्योंकि यही धरती विनोद जी का जीवन और रचना संसार रही है। छत्तीसगढ़ की संस्कारधानी राजनांदगांव और राजधानी रायपुर से ही श्री शुक्ल की जड़ें जुड़ी हैं। विनोद कुमार शुक्ल ने कहा भी है कि स्थानीय हुए बिना मैं सार्वभौमिक नहीं हो सकता। लोकल और ग्लोबल के संबंध को इतनी आसानी से वही समझा सकता है, जिसे तमाम जटिलताओं में जीने वाले साधारण मनुष्य की पहचान सरलता से करना आता हो।

    विनोद कुमार शुक्ल का पहला उपन्यास 'नौकर की कमीजÓ 1979 में आया और इसने हिन्दी के पाठकों को एक नए तरह के गद्य का आस्वाद कराया। नौकर की कमीज पर प्रख्यात फिल्मकार मणि कौल ने इसी नाम से एक यादगार कला फिल्म भी बनाई थी। इसके बाद उनकी जितनी भी कृतियां सामने आईं, सभी ने पाठकों को चमत्कृत किया। गहराई में उतर कर अभिव्यक्ति के मोती पाठकों तक पहुंचाने का यह जादू मुक्तिबोध जी जैसा ही है। हिन्दी के महान लेखक और कवि, और संयोग है कि उनकी जड़ें भी राजनांदगांव से ही जुड़ी थी। तार सप्तक के सबसे उल्लेखनीय कवियों में से एक गजानन माधव मुक्तिबोध ने विनोद कुमार शुक्ल के लेखन को प्रभावित किया। विनोद कुमार शुक्ल का पहला कविता संग्रह 1981 में आया, वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहिन कर विचार की तरह। इसी शीर्षक से उनकी कविता की शुरुआती पंक्तियां हैं-

    वह आदमी नया गरम कोट पहिनकर चला गया विचार की तरह।
    रबड़ की चप्पल पहनकर मैं पिछड़ गया।
    जब देश में हवाई चप्पल वालों को हवाई यात्रा कराने के ख्वाब दिखाने वाली राजनीति के दिन चल रहे हों, तब विनोदजी की कविताएं रबड़ की चप्पल पहनने वाले आम आदमी की वेदना समझने के लिए और अधिक उपयोगी लगने लगती हैं। पिछले बरसों में विनोद कुमार शुक्ल ने बच्चों के लिए भी महत्वपूर्ण लेखन किया है। बच्चों के लिए उनका उपन्यास- 'हरी घास की छप्पर वाली झोपड़ी और बौना पहाड़' है, जिसका आनंद बड़े भी ले सकते हैं। विनोद जी का मानना है कि बच्चों के लिखना कठिन होता है, क्योंकि लिखना ऐसा होना चाहिए, जिसे बच्चे आसानी से समझ सकें। हिन्दी में बच्चों के साहित्य के नाम पर नैतिकता की बड़ी-बड़ी बातें थोप दी जाती हैं, जबकि यह समझने की जरूरत है कि बाल मनोविज्ञान को समझ कर बच्चों का परिचय साहित्य से कराया जाए। और साहित्य ही क्यों जीवन के सभी पहलुओं से बच्चों को वाकिफ कराने के लिए उनके मन की सरलता और निश्चछलता को महसूस करना जरूरी है। विनोद जी की बेटी ने एक संस्मरण में कहीं जिक्र किया था कि एक बार रंग-बिरंगी चकरी बेचने वाले से विनोद जी ने सारी चकरियां खरीद लीं और फिर अपने दोनों बच्चों के साथ उन्हें घर के बाहर जाली से बांध दिया। जब हवा चलती और बांस की पतली डंडी से बंधी चकरियां घूमती तो अद्भुत रंगीन दृश्य बन जाता। यही जादुई यथार्थवाद विनोदजी की रचनाओं में बार-बार नजर आता है।

    खुशी की बात है कि विनोद कुमार शुक्ल के लेखन को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मान मिल रहा है। वैसे विनोद कुमार शुक्ल किसी सम्मान या पुरस्कार के मोहताज नहीं हैं। उन्हें देश-विदेश के कई सम्मान पहले ही प्राप्त हैं। उनकी अनेक रचनाओं के कई भाषाओं में अनुवाद हुए हैं। पाठकों और प्रशंसकों का एक बड़ा वर्ग है, जो अपने आप में एक बड़ा सम्मान है। फिर भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मिली इस उपलब्धि पर हमें इसलिए भी खुश होना चाहिए कि जिस हिंदी को सरकारी आयोजनों, पुरस्कारों और प्रायोजित विदेश यात्राओं के जाल में फंसा कर बोझिल बना दिया गया। जिस हिंदी से नयी पीढ़ी बिदकी रहती है, पाठ्यक्रम में जरूरत जितनी हिंदी सीख कर काम चलाती है और गलत हिंदी लिख-बोल कर खुश होती है कि उसे हिंदी नहीं आती। उस भाषा के एक लेखक को अमेरिका में सम्मानित किया जा रहा है, कम से कम इस बात से ही शायद हिंदी साहित्य की ओर नयी पीढ़ी का ध्यान जाए।
    बहरहाल, विनोद कुमार शुक्ल को देशबन्धु परिवार की ओर से अशेष बधाइयां और शुभकामनाएं।

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